Friday 23 February 2018

राधा मेरी स्वामीनी,मै राधे तेरी दास

॥राधा मेरी स्वामीनी,मै राधे तेरी दास।।
"............🔱."श्री राधा".🔱............"
श्री राधा- दुःख में सुख का एहसास है, 
श्रीराधा हरपल मेरे आस पास है ।
श्रीराधा मन की आत्मा है, 
श्रीराधा साक्षात् परमात्मा है ।
श्रीराधा भक्ति और ज्ञान है,
श्रीराधा गीता और पुराण है ।
श्रीराधा ठण्ड में गुनगुनी धूप है,
श्रीराधा श्री हरी का ही एक रूप है ।
श्रीराधा तपती धूप में छाया है,
श्रीराधा आदि शक्ति महामाया है ।
श्रीराधा जीवन में प्रकाश है,
श्रीराधा निराशा में आस है ।
श्रीराधा महीनों में सावन है,
श्रीराधा गंगा सी पावन है ।
श्रीराधा वृक्षों में पीपल है,
श्रीराधा फलों में श्रीफल है ।
श्रीराधा देवियों में गायत्री है,
श्रीराधा मनुज देह में सावित्री है ।
श्रीराधा ईश् वंदना का गायन है,
श्रीराधा चलती फिरती रामायण है ।
श्रीराधा रत्नों की माला है,
श्रीराधा अँधेरे में उजाला है,
श्रीराधा बंन्धन और रोली है,
श्रीराधा रक्षासूत्र की मोली है ।
श्रीराधा ममता का प्याला है,
श्रीराधा शीत में दुशाला है ।
श्रीराधा गुङ सी मीठी बोली है,
श्रीराधा दशहरा दिवाली, होली है ।
श्रीराधा इस भक्ति मार्ग में हमें लाई है,
श्रीराधा की याद हमें अति की आई है ।
श्रीराधा सरस्वती लक्ष्मी और दुर्गा माई है,
श्रीराधा ब्रह्माण्ड के कण कण में समाई है 
प्रति दिन में बस ये इक पुण्य का काम करो।
श्री राधा रानी के चरणों में सदा ही दंडवत प्रणाम करो ।। 
🍃🙏🏻श्री राधा राधा🙏🏻🍃

    आअौ सब राधामय हो जाएं
इस नाम के बिना कभी रह ना पाएं

      🌾🍂श्री राधाकृष्णमय🍂🌾

Tuesday 26 December 2017

राग काफी—ताल दीपचंदी

राग काफी—ताल दीपचंदी

केवल तुम्हें पुकारूँ प्रियतम!   देखूँ एक तुम्हारी ओर।
अर्पण कर निजको चरणोंमें बैठूँ हो निश्चिन्त, विभोर॥
प्रभो!   एक बस, तुम ही मेरे हो सर्वस्व सर्वसुखसार।
प्राणोंके तुम प्राण, आत्माके आत्मा आधेयाऽधार॥
भला-बुरा, सुख-दु:ख, शुभाशुभ मैं, न जानता कुछ भी नाथ! 
जानो तुम्हीं, करो तुम सब ही, रहो निरन्तर मेरे साथ॥
भूलूँ नहीं कभी तुमको मैं, स्मृति ही हो बस, जीवनसार।
आयें नहीं चित्त-मन-मतिमें कभी दूसरे भाव-विचार॥
एकमात्र तुम बसे रहो नित सारे हृदय-देशको छेक।
एक प्रार्थना इह-परमें तुम बने रहो नित सङ्गी एक॥

-नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार

राधे-श्याम् राधे-श्याम् ।राधा-माधव राधे-श्याम् ॥
ईश-रमेश राधे-श्याम् ।केशव सुन्दर  मेघ-श्याम् ॥
वसुदेव-सुत राधे-श्याम् ।शेष-सुशयन मेघ-श्याम् ॥
पाण्डव-प्राण राधे-श्याम् ।खाण्डव-दहन  मेघ-श्याम् ॥
पाण्डव-रक्षक राधे-श्याम् ।कौरव-शिक्षक मेघ-श्याम् ॥
निगमागोचर राधे-श्याम् ।अगणित-महिमा-मेघ-श्याम् ॥
मुरळी-मनोहर राधे-श्याम् ।पवन-पुरेश  मेघ-श्याम् ॥



Tuesday 14 November 2017

ध्यान रखो

ध्यान रखो प्रभुके भक्तोंका, होय कभी अपमान नहीं ।
ध्यान रखो जीवनमें होवें, दुर्गुण दोष प्रधान नहीं ।
ध्यान रखो मनके मन्दिरसे, हों प्रभु अन्तर्धान नहीं ।
छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरि नाम नहीं ।। १ ।।
ध्यान रखो हरिके सुमिरन बिन, बीते समय ललाम नहीं ।
ध्यान रखो दुष्कर्म बुद्धिसे, जीवन हो अधरगन नहीं ।
ध्यान रखो सत्कर्म धर्मसे, रहे कामीका काम नहीं ।
छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरि नाम नहीं ।। २ ।।
ध्यान रखो जीवनको जीतें, मृषा मोह मद मान नहीं ।
ध्यान रखो हो विनय भावका, जीवनमें अवसान नहीं ।
ध्यान रखो प्रभु भक्ति बिना हो, शिभित विभव महान नहीं ।
छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरि नाम नहीं ।। ३ ।।
ध्यान रखो जीवन हो जगमें, केवल स्वार्थ-प्रधान नहीं ।
ध्यान रखो अपमान अयशमें, होय कभी मन म्लान नहीं ।
ध्यान रखो छूटे प्रभु पदमें, श्रद्धाका सोपान नहीं ।
छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरि नाम नहीं ।। ४ ।।
ध्यान रखो जीवनमें होवे, प्रभु तज अन्य प्रधान नहीं ।
ध्यान रखो प्रभु प्राप्ति बिना हो, जीवनका अवसान नहीं ।
ध्यान रखो अब पुनर्जन्मका, आगे बने विधान नहीं ।
छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरि नाम नहीं ।। ५ ।।
ध्यान लगे भगवान् का, बने लोक परलोक ।
‘हरिदास’ नर धन्य हो, पाकर परमालोक ।।
- स्वामी श्रीनर्मदानन्दजी सरस्वती ‘हरिदास’

Wednesday 4 October 2017

श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार

श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति
(राग वागेश्री-तीन ताल)
राधे ! तू ही चित्तरंजनी, तू ही चेतनता मेरी।
तू ही नित्य आत्मा मेरी, मैं हूँ बस, आत्मा तेरी॥
तेरे जीवनसे जीवन है, तेरे प्राणोंसे हैं प्राण।
तू ही मन, मति, चक्षु, कर्ण, त्वक्‌, रसना, तू ही इन्द्रिय-घ्राण॥
तू ही स्थूल-सूक्ष्म इन्द्रियके विषय सभी मेरे सुखरूप।
तू ही मैं, मैं ही तू बस, तेरा-मेरा सबन्ध अनूप॥
तेरे बिना न मैं हूँ, मेरे बिना न तू रखती अस्तित्व।
अविनाभाव विलक्षण यह सबन्ध, यही बस, जीवन-तत्त्व॥

                                       (१४)
श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति
(राग वागेश्री-तीन ताल)
तुम अनन्त सौन्दर्य-सुधा-निधि, तुममें सब माधुर्य अनन्त।
तुम अनन्त ऐश्वर्य-महोदधि, तुममें सब शुचि शौर्य अनन्त॥
सकल दिव्य सद्‌गुण-सागर तुम लहराते सब ओर अनन्त।
सकल दिव्य रस-निधि तुम अनुपम, पूर्ण रसिक, रसरूप अनन्त॥
इस प्रकार जो सभी गुणोंमें, रसमें अमित असीम अपार।
नहीं किसी गुण-रसकी उसे अपेक्षा कुछ भी किसी प्रकार॥
फिर मैं तो गुणरहित सर्वथा, कुत्सित-गति, सब भाँति गँवार।
सुन्दरता-मधुरता-रहित कर्कश कुरूप अति दोषागार॥
नहीं वस्तु कुछ भी ऐसी, जिससे तुमको मैं दूँ रसदान।
जिससे तुम्हें  रिझाऊँ, जिससे करूँ तुम्हारा पूजन-मान॥
एक वस्तु मुझमें अनन्य आत्यन्तिक है विरहित उपमान।
’मुझे सदा प्रिय लगते तुम’-यह तुच्छ किंतु अत्यन्त महान॥
रीझ गये तुम इसी एक पर, किया मुझे तुमने स्वीकार।
दिया स्वयं आकर अपनेको, किया न कुछ भी सोच-विचार॥
भूल उच्चता भगवत्ता सब सत्ताका सारा अधिकार।
मुझ नगण्यसे मिले तुच्छ बन, स्वयं छोड़ संकोच-सँभार॥
मानो अति आतुर मिलनेको, मानो हो अत्यन्त अधीर।
तत्त्वरूपता भूल सभी नेत्रोंसे लगे बहाने नीर॥
हो व्याकुल, भर रस अगाध, आकर शुचि रस-सरिताके तीर।
करने लगे परम अवगाहन, तोड़ सभी मर्यादा-धीर॥
बढ़ी अमित, उमड़ी रस-सरिता पावन, छायी चारों ओर।
डूबे सभी भेद उसमें, फिर रहा कहीं भी ओर न छोर॥
प्रेमी, प्रेम, परम प्रेमास्पद-नहीं ज्ञान कुछ, हु‌ए विभोर।
राधा प्यारी हूँ मैं, या हो केवल तुम प्रिय नन्दकिशोर॥
-नित्यलीलालीन श्रीहनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी

Tuesday 3 October 2017

श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति

श्रीकृष्णके प्रेमोद्गार—श्री राधा के प्रति
(राग भैरवी-तीन ताल)
राधा ! तुम-सी तुम्हीं एक हो, नहीं कहीं भी उपमा और।
लहराता अत्यन्त सुधा-रस-सागर, जिसका ओर न छोर॥
मैं नित रहता डूबा उसमें, नहीं कभी ऊपर आता।
कभी तुम्हारी ही इच्छासे हूँ लहरोंमें लहराता॥
पर वे लहरें भी गाती हैं एक तुम्हारा रम्य महत्त्व।
उनका सब सौन्दर्य और माधुर्य तुम्हारा ही है स्वत्व॥
तो भी उनके बाह्य रूपमें ही बस, मैं हूँ लहराता।
केवल तुम्हें सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥
एकछत्र स्वामिनि तुम मेरी अनुकपा अति बरसाती।
रखकर सदा मुझे संनिधिमें जीवनके क्षण सरसाती॥
अमित नेत्रसे गुण-दर्शन कर, सदा सराहा ही करती।
सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उल्लास अमित उरमें भरती॥
सदा सदा मैं सदा तुम्हारा, नहीं कदा को‌ई भी अन्य।
कहीं जरा भी कर पाता अधिकार दासपर सदा अनन्य॥
जैसे मुझे नचा‌ओगी तुम, वैसे नित्य करूँगा नृत्य।
यही धर्म है, सहज प्रकृति यह, यही एक स्वाभाविक कृत्य॥

                                            (१६)
श्रीराधाके प्रेमोद्गार—श्रीकृष्णके प्रति
(राग भैरवी तर्ज-तीन ताल)
तुम हो यन्त्री, मैं यन्त्र, काठकी पुतली मैं, तुम सूत्रधार।
तुम करवा‌ओ, कहला‌ओ, मुझे नचा‌ओ निज इच्छानुसार॥
मैं करूँ, कहूँ, नाचूँ नित ही परतन्त्र, न को‌ई अहंकार।
मन मौन नहीं, मन ही न पृथक्‌, मैं अकल खिलौना, तुम खिलार॥
क्या करूँ, नहीं क्या करूँ-करूँ इसका मैं कैसे कुछ विचार ?
तुम करो सदा स्वच्छन्द, सुखी जो करे तुम्हें  सो प्रिय विहार॥
अनबोल, नित्य निष्क्रिय, स्पन्दनसे रहित, सदा मैं निर्विकार।
तुम जब जो चाहो, करो सदा बेशर्त, न को‌ई भी करार॥
मरना-जीना मेरा कैसा, कैसा मेरा मानापमान।
हैं सभी तुम्हारे ही, प्रियतम ! ये खेल नित्य सुखमय महान॥
कर दिया क्रीड़नक  बना मुझे निज करका तुमने अति निहाल।
यह भी कैसे मानूँ-जानूँ, जानो तुम ही निज हाल-चाल॥
इतना मैं जो यह बोल गयी, तुम ज्ञान रहे-है कहाँ कौन ?
तुम ही बोले भर सुर मुझमें मुखरा-से मैं तो शून्य मौन॥
-नित्यलीलालीन श्रीहनुमान प्रसादजी पोद्दार - भाईजी